Vibhedkaari Nagarikta ka Siddhant - विभेदकारी नागरिकता का सिद्धांत

विभेदकारी नागरिकता का सिद्धांत:-

उदारवाद ने सामाजिक विभेदीकरण के मुद्दे को आरोपित पहचानो को नकारते हुए सभी व्यक्तियों को नागरिक के रूप में समान अधिकार देकर सुलझाने की कोशिश की। इसके बिल्कुल विपरीत बहुसांस्कृतिकवाद की दलील है कि सभी के लिए समान अधिकार संस्कृति पर आधारित मतभेद को न्यूनतम करने के लिए अपर्याप्त है । विभेदीकृत नागरिकता की अवधारणा सार्वभौमिक नागरिकता के उदारवादी आदर्श को नकारती है ।

बहुसांस्कृतिकवाद का कहना है कि सार्वभौमिकता यह मानती है कि सभी नागरिक एक जैसे होते हैं, सजातीयता की यह मान्यता समूह विभेदो को छुपा देती हैं। यह नागरिकों से अपनी विशिष्ट पहचान को भूलकर अपने राज्य के नागरिक समझने के आह्वान करती है। इसी तरह से सार्वभौमिक नागरिकता का विचार विशेष अधिकार प्राप्त वर्ग को अपने समूह की विशिष्टता को नकारने की अनुमति देता है। समूह विभेदीकरण पर आधारित नागरिकता अधिकारों की वकालत इस आत्मीकरण की प्रक्रिया को रोकने के लिए की गई है और ऐसा अल्पसंख्यक सांस्कृतिक समुदायों को अधिकारों को देकर किया गया है, जिनसे कि समाज तथा राज्य से आ रही सजातीयता के दबाव से अपनी संस्कृति की सुरक्षा कर सके।

यह इस विश्वास पर आधारित है कि समाज अनेक विविध सांस्कृतिक समुदाय से मिलकर बनता है और राज्य एक ही संस्कृति जो कि बहुमत की संस्कृति होती हैं, को विशेष अधिकार देता है और उसकी पुष्टि करता है क्योंकि इससे अन्य सांस्कृतिक समुदाय हाशिए पर आ जाते हैं और उन्हें हानि होती है। इसलिए उन्हें विशेष अधिकार प्रदान किए जाए। नागरिकों में उनकी सांस्कृतिक पहचान के आधार पर विभेद किया जाए और सभी को समान व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए यह न्यायोचित है ।

विभेदीकृत नागरिकता की रूपरेखा के के भीतर बहुसंस्कृतकवाद अल्पसंख्यक समुदायों के लिए तीन प्रकार के विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है:- सांस्कृतिक अधिकार, स्वशासन का अधिकार और विशेष प्रतिनिधि के अधिकार । बहुसंस्कृतिवाद का मानना है कि अल्पमत समुदायों को विशेष अधिकारों की आवश्यकता है, ताकि सार्वजनिक क्षेत्र में उनकी संस्कृति की पहुंच हो सके। पश्चिमी लोकतंत्र में वर्तमान कानूनों से अपवाद अल्पसंख्यक सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए सहायता तथा अल्पसंख्यक संस्कृति व्यवहार की मान्यता के रूप में विश्व सांस्कृतिक अधिकारों की मांग की गई हैं। कई बार अल्पसंख्यको समुदायों ने अपनी अलग सांस्कृतिक व्यवहारों की मांग की है। बहुसांस्कृतिकवाद के अंतर्गत विशेष अधिकारों का दूसरा रूप स्वशासन का है। मान्यता के अधिकारों की तरह यह भी क्षेत्राधिकार की दोहरी संरचनाओं का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं यहां सिर्फ एक विशेष अंतर है कि स्वशासन के अधिकार भूमि के दावों से संबंधित है समुदाय जोकि स्पष्ट प्रदेश में जमा है और वे वहां पर पीढ़ियों से रह रहे हैं को ऐसा अधिकार मिल सकता है । स्वशासन के अधिकारों को देने का उद्देश्य समुदायों को कुछ सीमा तक राजनीति सहायता प्रदान करना, ताकि वह अपने ऊपर शासन इस प्रकार करें जिससे कि एक स्पष्ट प्रदेश में उनके पृथक सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित व प्रोत्साहित हो सके। अल्पसंख्यक अधिकारों की तीसरी श्रेणी विशेष प्रतिनिधित्व अधिकारों की है इन अधिकारों के दावों के पीछे धारणा यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय को राजनीति प्रक्रिया में भाग लेने, एजेंडा तय करने, व अपने विशिष्ट विचारों को व्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिए। यह भागीदारी सार्वजनिक ज्ञान का पोषण करेगी और साथ-साथ उन समूह को राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल करेगी जो कि अन्यथा हास्य पर है। इसके आगे यह भी दलील दी जाती है कि विभिन्न समूह विशेष कर उत्पीड़ित अल्पसंख्यको का जानबूझकर समावेश सार्वजनिक नियमों को परिभाषित करने व विचारशील एकमत के निर्माण में एक शक्तिशाली उपकरण होगा।
विशिष्ट प्रतिनिधित्व सीमांतरीय समूह को शामिल करने तथा उनके सशक्तीकरण का एक तरीका है जिससे कि उनके अंदर नीति निर्माण में भागीदारी तथा योगदान देने की भावना हो। भारत में संविधान के द्वारा अनुसूचित जाति ,जनजातियों तथा महिलाओ को विशेष प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है और यह चेष्टा अभी तक सार्वजनिक व राजनीतिक क्षेत्र से दूर लोगों को शामिल करने की नियत से की गई है